आज के समय में धर्म व्यक्ति को जीना नहीं सिखा सकता लड़ना तो सिखा सकता है. (Dedicated to Religious Critic & Scientific Development)
Saturday 15 January 2011
संतो के समाधान
-Ram Prakash Anant
आम तौर पर संतों में लोग बहुत श्रद्धा रखते हैं. कभी-कभी तो लोग अंधभक्त की तरह ऐसा मान लेते हैं कि संत किसी भी समस्या का समाधान करने में सक्षम हैं. जबकि मेरा अपना विश्वास है कि संत समाज की समस्याओ को हल नहीं कर सकते. उसका कारण है उनका सीमित सामाजिक ज्ञान व हर चीज़ के प्रति एक सा धार्मिक दृष्टिकोण. सामान्यतः संतों के समाधान को किसी उदाहरण के द्वारा समझाया जाता है. लोग इसे बिना दिमाग़ का इस्तेमाल किए श्रद्धावश मान लेते हैं.
संत विनोवा भावे परंपरागत केवल धार्मिक ज्ञान रखने वाले संत नहीं थे. उन्होंने कई किताबें लिखी हैं. मेगसेसे अवार्ड भी उन्हे मिला था. उनके बारे में एक कहानी मैंने कई जगह अख़बार में पढ़ी है. कहानी शराब छोड़ने की समस्या को लेकर है. जो इस प्रकार है.
एक बार एक व्यक्ति विनोवा भावे के पास आया.वह बोला-मैं शराब छोड़ना चाहता हूँ परंतु छोड़ नहीं पा रहा हूँ, कोई उपाय बताएँ. विनोवा भावे बोले कल मेरे पास आना मैं उपाय बता दूँगा. दूसरे दिन वह व्यक्ति विनोबा भावे के पास गया. उसने दरवाज़े से आवाज़ लगाई तो विनोबा भावे बोले कि मैं अभी आ रहा हूँ. जब काफ़ी देर हो गई और वे बार - बार यही बोलते रहे तो व्यक्ति ने पूछा आप क्यों नहीं आ रहे हैं तो वे बोले कि क्या करें, वे आना चाहते हैं परंतु खंभे ने उन्हें पकड़ लिया है इसलिए वे नहीं आ पा रहे हैं. इस पर उस व्यक्ति को घोर आश्चर्य हुआ. उसने अंदर आ कर देखा वे एक खंबे को पकड़े बैठे थे. उस व्यक्ति ने कहा, खंबे ने आप को कहाँ पकड़ा है आप खंबे को पकड़े बैठे हैं. विनोबा भावे खंबा छोड़ कर बोले यही तो मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि तुम शराब को पकड़े हो शराब तुम्हें नहीं पकड़े है.
यद्यपि कहानी में आगे बताया गया है कि उस व्यक्ति ने उसके बाद कभी शराब को हाथ नहीं लगाया.तथापि शराबियों के सामने इस तरह के उदाहरण पेश कर शराब की समस्या से छुटकारा नहीं पाया जा सकता. दर अस्ल इस कहानी में कई तरह की समस्याएं हैं. मसलन खंबे को पकड़्ना और शराब पीना दोनों एक जैसी समस्याएं नहीं है. शराब आदमी पूरी ज़िंदगी पी सकता है पर पूरी ज़िंदगी खंबे को पकड़ कर नहीं बैठ सकता. दर अस्ल जब व्यक्ति खंबे को पकड़े होता है तो खंबा व्यक्ति पर कोई असर नहीं डाल रहा होता है परंतु शराब व्यक्ति के शरीर पर असर डालती है. कई बार व्यक्ति शराब छोड़्ना चाहता है परंतु छोड़ नहीं पाता. इस का अच्छा उदाहरण डिएडिक्शन क्लीनिक पर आने वाले मरीज़ हैं. तमाम मरीज़ जो शराब छोड़्ना चाहते हैं पर छोड़ नहीं पाते इन क्लीनिक्स पर ठीक हो कर जाते हैं. दर अस्ल विज्ञान और धर्म में यही फ़र्क़ है. धर्म एक समस्या को एक ही तरह से देखता है और वह प्रतीकों के माध्यम से जो समाधान प्रस्तुत करता है वह किसी सच्चाई की कसौटी पर तो कसा नहीं होता है. इसलिए अक्सर सच्चाई के रूप मैं भ्रम खड़ा कर देता है. इस मामले में ही विनोबा भावे पर सोचने के लिए सिर्फ़ एक उदहरण है जबकि विज्ञान उसे अनेक दृष्टिकोण से सोचता है.जैसे किसी व्यक्ति की विल पॉवर इतनी अच्छी है कि वह आसानी से शराब छोड़ सकता है. किसी व्यक्ति को शराब की लत(एडिक्शन) उतना अधिक तीव्र नहीं होता है और वह भी थोड़ी कोशिश के बाद आसानी से शराब छोड़ सकता है. जबकि कुछ लोगों में लत ( एडिक्शन) इतना तीव्र हो जाता है कि वे चाह कर भी शराब नहीं छोड़ पाते. यदि वे शराब छोड़्ते हैं तो शराब के अभाव में उनके शरीर पर बहुत ही बुरा असर पड़्ता है. मजबूरन वे चाहकर भी शराब नहीं छोड़ पाते. ऐसे लोगों को दवाओं की ज़रूरत होती है और दवाओं के सहयोग से वे शराब छोड़ सकते हैं.कई बार घर का माहौल ऐसा होता है कि व्यक्ति को शराब छोड़ पाना मुश्किल हो जाता है. घर के माहौल में परिवर्तन कर ऐसे व्यक्ति से शराब छुड़वाई जा सकती है.इस तरह साएकेट्री में इस मुद्दे पर एक पूरे विषय का विकास हो जाता है. जबकि विनोबा भावे के पास इस विषय पर एक खंबे का उदाहरण ही है. विडंबना यह है कि संत और धर्म हर समस्या का एक उदाहरण देकर समाधान करने का दम भरते हैं और भोले लोग उसे स्वीकार भी कर लेते हैं.
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